पंजाब के दो पूर्व न्यायिक अधिकारियों की प्रीमैच्योर रिटायरमेंट के खिलाफ याचिका को हाई कोर्ट ने किया खारिज

Rozanaspokesman

राष्ट्रीय, पंजाब

भ्रष्टाचार और आय से अधिक संपत्ति संबंधी शिकायतों के बाद हाई कोर्ट ने अधिकारियों को दी थी प्रीमैच्योर रिटायरमेंट

Punjab High Court dismisses plea against premature retirement of two former judicial officers

Punjab-Haryana High Court: पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने पंजाब के दो पूर्व न्यायिक अधिकारियों रविंद्र कुमार काड़ल और उनकी पत्नी आशा काड़ल की प्रीमैच्योर रिटायरमेंट के खिलाफ दायर याचिकाओं पर अपना विस्तृत फैसला सुनाते हुए साफ कर दिया है कि न्यायिक सेवा में ईमानदारी, प्रतिष्ठा और पूरे करियर का मूल्यांकन सबसे महत्वपूर्ण है। अदालत ने आशा  की याचिका पूरी तरह खारिज कर दी, जबकि रवींद्र कुमार  को केवल वेतन रिकवरी रद्द करने के रूप में सीमित राहत दी। (Punjab High Court dismisses plea against premature retirement of two former judicial officers news in hindi)

मामले के अनुसार  दोनों अधिकारी  जो उस समय क्रमश सीजेएम कम सिविल जज सिनियर डिवीजन  और एडीशनल सेशन जज  के पद पर कार्यरत थे , को हाई कोर्ट ने प्रशासनिक स्तर पर 50 वर्ष की आयु पूरी होने पर जनहित में समय से पहले रिटायर किया गया था। दोनों ने इसे मनमाना बताते हुए कोर्ट  में चुनौती दी थी। लेकिन कोर्ट ने उनके पूरे सेवा रिकार्ड  की समीक्षा करते हुए पाया कि 2009 से लगातार उनके आचरण और कार्यशैली को लेकर गंभीर टिप्पणिया दर्ज थीं। इनमें  काम में ढिलाई, पंक्चुअलिटी की कमी, ज्यादा छुट्टियां लेने की प्रवृत्ति, बार में कई तरह की चर्चा व शिकायतें, और अनुशासनहीनता जैसे उल्लेख शामिल थे। इसके अलावा भ्रष्टाचार और आय से अधिक संपत्ति संबंधी शिकायतों की जांच भी लंबे समय तक चलती रही, और दोनों कई वर्षों तक निलंबित रहे।

कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि प्रीमैच्योर रिटायरमेंट कोई अनुशासनात्मक सजा नहीं होती, बल्कि प्रशासन को पूरे रिकार्ड के आधार पर तय करने का अधिकार है कि अधिकारी को सेवा में रखना लोकहित में है या नहीं। जस्टिस अश्वनी कुमार  मिश्रा  और जस्टिस रोहित कपूर ने टिप्पणी की कि न्यायिक अधिकारियों से उच्चतम नैतिक मानकों की अपेक्षा की जाती है, क्योंकि न्यायपालिका पर जनता का भरोसा इन मूल्यों पर ही टिका है। ऐसे मामलों में अदालत केवल यह देखती है कि प्रशासन का फैसला कहीं दुर्भावना, मनमानेपन या जरूरी रिकार्ड की अनदेखी पर आधारित तो नहीं है। यह ऐसा कुछ भी नहीं पाया गया।हालांकि, रवींद्र कुमार  के मामले में कोर्ट ने रिकवरी को लेकर प्रशासन की कार्रवाई गलत ठहराई। उनके निलंबन की अवधि (23 जुलाई 2012 से 4 अक्टूबर 2015) को “लीव आफ द काइंड ड्यू” मानना और लगभग 23.85 लाख की रिकवरी थोपना अनुचित बताया गया। 

कोर्ट ने कहा कि जब हाई कोर्ट ने खुद उनके खिलाफ लंबित अनुशासनात्मक मामलों को  स्थगित  में रखा हुआ था, तो इस प्रकार की रिकवरी करना न्यायसंगत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के रफीक मसीह मामले का हवाला देते हुए कोर्ट ने रिकवरी आदेश रद्द कर दिए। यह राहत केवल रवींद्र कुमार  को ही मिली, क्योंकि उन्होंने इसे अपनी याचिका में विशेष रूप से चुनौती दी थी।अंत में, हाईकोर्ट ने आशा  की याचिका पूरी तरह खारिज कर दी, जबकि रवींद्र कुमार  की याचिका  आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए केवल रिकवरी रद्द की। कोर्ट ने कहा कि दोनों का प्रीमैच्योर रिटायरमेंट कानूनी, तर्कसंगत और लोकहित पर आधारित था, इसलिए इसमें किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

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