बिहार में जाति सर्वेक्षण का पहला दौर 7 जनवरी से 21 जनवरी के बीच आयोजित किया गया था।
New Delhi: उच्चतम न्यायालय ने बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण कराने के राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ दायर याचिका पर शुक्रवार को विचार करने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला की पीठ ने याचिकाकर्ता को पटना उच्च न्यायालय का रुख करने की अनुमति दी और याचिका पर जल्द फैसला करने का निर्देश दिया । पीठ ने कहा, ‘‘याचिकाकर्ता याचिका को स्थानांतरित करने की अनुमति चाहता है जिस पर उच्च न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है।’’
पीठ ने कहा, ‘‘हम याचिकाकर्ता को एक उपयुक्त अंतरिम अर्जी दायर करने की अनुमति देते हैं और उच्च न्यायालय कम से कम अंतरिम अर्जी पर जल्द से जल्द विचार करे और इसे दायर करने के तीन दिन के भीतर इस पर निर्णय करे।’’ शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि उसने मामले के गुण-दोष पर कुछ भी टिप्पणी नहीं की है।
बिहार में जाति सर्वेक्षण का पहला दौर 7 जनवरी से 21 जनवरी के बीच आयोजित किया गया था। दूसरा दौर 15 अप्रैल को शुरू हुआ और 15 मई तक होगा।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने कहा कि यह एक गंभीर मामला है जहां पटना उच्च न्यायालय ने अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया है। रोहतगी ने कहा कि आने वाले चुनावों को देखते हुए सर्वेक्षण तेजी से किया जा रहा है।.
पीठ ने कहा, ‘‘नौकरशाही, राजनीति, सेवा...हर क्षेत्र में काफी जातिवाद है। आप इतनी जल्दबाजी में ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसकी क्या जरूरत है?’’
बिहार सरकार की ओर से पेश वकील ने कहा कि यह कवायद राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार की जा रही है। शीर्ष अदालत उच्च न्यायालय के 18 अप्रैल के अंतरिम आदेश के खिलाफ ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी।. याचिका में जाति-आधारित सर्वेक्षण को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह जनसंख्या के लिए एक नमूना के आधार पर सर्वेक्षण नहीं बल्कि जनगणना है, जिसमें सभी लोगों की घर-घर जाकर गणना करने की कवायद शामिल है, जिसे केवल केंद्र ही करा सकता है।
याचिका में कहा गया, ‘‘जनगणना अधिनियम, 1948 की धारा 3 और जनगणना नियम, 1990 के नियम 6ए के अनुसार, केंद्र ने बिहार में जाति आधारित सर्वेक्षण या जनगणना के लिए ऐसी कोई घोषणा नहीं की है।’’
शीर्ष अदालत ने 20 जनवरी को बिहार में जाति सर्वेक्षण कराने के राज्य सरकार के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार करने से इनकार कर दिया था। न्यायालय ने कहा था कि याचिकाओं में कोई दम नहीं है और इसे खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं को संबंधित उच्च न्यायालय का रुख करने की स्वतंत्रता प्रदान की थी।.